सवाल
अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू
मुहर्रम में क्या नाजाइज़ है?
जवाब
व अलैकुम अस्सलाम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहू
ताजिएदार आजकल जो ताज़िए बनाए जाते हैं अव्वलन तो यह हज़रत इमाम आली मकाम के रौज़ा का सही नक्शा नहीं है अजीब-अजीब तरह के ताजिए बनाए जाते हैं फिर उन्हें घुमाया और गश्त कराया जाता है और एक दूसरे से मुकाबला किया जाता है और इस मुकाबले में कभी-कभी लड़ाई झगड़े और लाठी डंडे चाकू और छुरी चलाने की नौबत आ जाती है और यह सब हज़रत इमाम हुसैन की मुहब्बत के नाम पर किया जाता है। अफ्सोस उस मुसलमान को क्या हो गया और यह कहाँ से चला था और कहाँ पहुंच गया कोई समझाए तो मानने को तैयार नहीं बल्कि उलटा समझाने वाले को बुरा भला कहने लगता है।
खुलासा यह कि आज की ताजिए दारी और उसके साथ होने वाली तमाम बिदआत व खुराफात व वाहियात सब नाजाइज़ व गुनाह हैं मसलन मातम करना, ताज़ियों पर चढ़ावे चढ़ाना, उनके सामने खाना रख कर वहाँ फातिहा पढ़ना, उन से मिन्नतें मांगना, उनके नीचे से बरकत हासिल करने के लिए बच्चों को निकालना ताजिए देखने को जाना, उन्हें झुक कर सलाम करना सवारियाँ निकालना सब जाहिलाना बातें और नाजाइज़ हरकतें हैं उनका मज़हबे इस्लाम से कोई वास्ता नहीं और जो इस्लाम को जानता है उसका दिल खुद कहेगा कि इस्लाम जैसा सीधा और शराफत व सन्जीदगी वाला मज़हब इन तमाशों और वहम परस्ती की बातों को कैसे गवारा कर सकता है?
कुछ लोग कहते हैं कि ताजिए दारी और उसके साथ-साथ ढोल बाजे और मातम करते हुए घूमने से इस्लाम और मुसलमानों की शान ज़ाहिर होती है। यह एक फजूल बात है, पाँचों वक़्त की अजान और मुहल्ले बस्ती और शहर के सब मुसलमानों को मस्जिदों और ईदगाहों में जुमा और ईद की नमाज़ बाजमाअत से ज़्यादा मुसलमानों की शान ज़ाहिर करने वाली कोई और चीज़ नहीं। ताजिए दारी और उसके साथ के तमाशों, ढोल बाजों और कूदने फांदने, मातम करते और बुजुर्गों के नाम पर गैर शरई उर्सों, मेलों और आज की कव्वालियों की महफिलों को देख कर तो गैर मुस्लिम यह समझते हैं कि इस्लाम भी हमारे मज़हब की तरह तमाशाई मज़्हब है और बजाए सुधरने और इस्लाम की तरफ आने के और चिढ़ते हैं और कभी-कभी इस ताजिए दारी की वजह से लड़ाई झगड़े और खूंरेज़ी की नौबत आती है और बे वजह मुसलमानों का नुक्सान होता है और नमाज़, रोज़ा, ईमान दारी और सच्चाई, अहकामे शरअ की पाबन्दी और दीनदारी को देख कर गैर मुस्लिम भी यह कहते हैं कि वाकई मज़हब है तो बस इस्लाम है यह और बात है कि वह किसी वजह से मुसलमान न बनें लेकिन उस में भी कोई शक नहीं कि बहुत से गैर मुस्लिमों का दिल मुसलमान होने को चाहता है और कुछ हो भी जाते हैं और होते रहे हैं। देखते नहीं हो कि दुनिया में कितने मुसलमान हैं और सिर्फ 14 सौ साल में उनकी तादाद कहाँ से कहाँ पहुंच गई यह सब नमाज़, रोज़े और इस्लाम की भोली, सीधी, सच्ची बातों को देख कर हुए हैं ताजिए दारी और उसके साथ मेलों ठेलों और तमाशों को देख कर कभी न कोई मुसलमान हुआ और न अब होता है। और ताजिए दारी से इस्लाम की शान ज़ाहिर नहीं होती बल्कि मज़्हवे इस्लाम की बदनामी होती है।
कुछ लोग मुहर्रम के दिनों में बजाए जाने वाले बाजों को ग़म का बाजा बताते हैं तो उन्हें मालूम होना चाहिए कि गम के मौका पर बाजे नहीं बजाए जाते और गम मनाना भी तो इस्लाम में जाइज़ नहीं है।
बाज़ जगह सुनने में आया कि कुछ लोग कहते हैं कि हमारे खानदान में ताजिए दारी पहले से होती चली आ रही है एक साल हम ने ताज़िया नहीं बनाया तो हमारा फलां नुक्सान हो गया या बीमार हो गये या घर में कोई मर गया, यह भी जाहिलाना बातें हैं पहले तो ऐसा होता नहीं और हो भी जाए तो यह एक शैतानी चाल है वह चाहता है कि तुम हराम कारियों में लगे रहो और खुदा व रसूल से दूर रहो हो सकता है कि शैतान आपको डगमगाने के लिए कुछ कर देता हो क्योंकि नफा और नुक्सान पहुंचाने की कुछ ताकत “अल्लाह” ने उसको भी दी है और अल्लाह की जात तो गनी है सबसे बेपरवाह है अगर सब सुधर जाएं नेक और परहेज़गार हो जाएं तो उसे कुछ नफा और फाइदा नहीं पहुंचता और सब बिगड़ जाएं तो उसका कुछ घाटा नहीं होता इंसान अच्छा करता है तो अपने अच्छे के लिए और बुरा करता है तो अपने बुरे के लिए और मुसलमान का अकीदा व ईमान इतना मज़्बूत होना चाहिए कि दुनिया का नफअ हो या नुक्सान हम तो वही करेंगे जिससे अल्लाह और रसूल राज़ी हैं और दुनिया के नफ और नुक्सान की हैसियत ही क्या है आखिर सबको मरना ही है और हमारे फाइदे और घाटे को भी अल्लाह ही जानता है हम कुछ नहीं जानते कभी किसी चीज में हम फाइदा समझते हैं और घाटा हो जाता है और कभी घाटा और नुक्सान ख्याल करते हैं और नफअ और फाइदा निकलता है। एक शख्स को मुद्दत से एक गाड़ी खरीदने की तमन्ना थी और जब खरीदी तो पूरी फैमिली के साथ उस गाड़ी में एक्सीडेंट के ज़रिए मारा गया। खुलासा यह कि अपने सब काम अल्लाह की मर्जी पर छोड़ दीजिए। और उसके बताए हुए रास्ते पर चलना ज़िन्दगी का मक्सद बना लीजिए फिर जो होगा देखा जाएगा। और वही होगा जो अल्लाह चाहेगा।
कुछ लोग कहते हैं कि ताजिए और तख़्त बनाना सजाना ऐसा ही है जैसे जल्से, जुलूस और मीलाद की महफिलों के लिए शामियाने पिंडालों, सड़कों, गलियों और घरों को सजाया जाता है। तो यह भी एक गलत फहमी है। जल्से, जुलूस और महफ़िलों में सजावट और डेकोरेशन असल मक्सद नहीं होता, जिक्र खैर वअज़ व तबलीग व तकरीर मक्सद होता है उसके लिए यह सजावटें होती हैं और ताजिया बनाने का मक्सद सिवाए सजाने, संवारने और घुमाने के और क्या है? और जल्से, जुलूस और महफिलों के लिए भी हद से ज़्यादा बेज़रूरत इतना डेकोरेशन और सजावट करना कि आने वालों का ध्यान उसी में लग कर रह जाए और वही मक्सद बन कर रह जाए और जिक्रे खैर वअज व तबलीग की तरफ से तवज्जोह हट जाए यह सब करना भी अच्छा नहीं है और इन सब सजावटों में भी आपस में मुकाबले और फख्र व मुबाहात खिलाफे शरअ बातें हैं। और महफिलें, मज्लिसें कभी-कभी बेगैर सजावट और डेकोरेशन के भी होती हैं और ताज़िया तो सजावट और डेकोरेशन ही का नाम है। यह न हो तो फिर ताजिया ही कहाँ रहा?
कुछ लोग कहते हैं कि ताजिए दारी ख़त्म हो गई तो इमाम हुसैन रदिअल्लाहु अन्हु का नाम मिट जाएगा तो यह भी उन लोगों की गलत फहमी है हज़रत इमाम हुसैन रदिअल्लाहु अन्हु का नाम तो दुनिया की लाखों मस्जिदों में हर जुमा की नमाज़ से पहले खुतबे में पढ़ा जाता है। पीरी मुरीदी के अक्सर सिलसिले उन से हो कर रसूले खुदा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तक पहुंचते हैं और जब शजरे पढ़े जाते हैं तो इमाम हुसैन रदिअल्लाहु अन्हु का नाम आता है कुरआने करीम के 22 वें पारे के पहले रुकू में जो आयते तत्हीर है उसमें भी अहले बैत का जिक्र मौजूद है और तो और खुद नमाज़ जो अल्लाह की इबादत है इसमें भी आले मुहम्मद पर दुरूद पढ़ा जाता है सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम । उसके अलावा कितने जल्सों जुलूसों महफिलों मज्लिसों नारों नज़्मों में उनका नाम आता है यह सब दुनिया जानती है मेरे बताने की ज़रूरत नहीं और सही बात यह है कि इमाम हुसैन रदिअल्लाहु अन्हु का नाम तो हर मुसलमान के दिल में अल्लाह तआला ने लिख दिया है और जिसके दिल में इमाम हुसैन रदिअल्लाहु अन्हु का नाम नहीं वह मुसलमान कहलाने का हक्दार नहीं। तो भाईयो जिसका जिक्र नमाज़ों में खुतबों में कुरआन की आयतों में और हज़ारों महफ़िलों मज्लिसों और खानकाही शजरों में हो उसका नाम कैसे मिट जाएगा। ताजिए दारी और उसके साथ जो तमाशे होते हैं उस से तो हज़रत इमाम पाक रदिअल्लाहु अन्हु का नाम बदनाम होता है और जो लोग कहते हैं ताजिए दारी ख़त्म हो गई तो इमाम हुसैन रदिअल्लाहु अन्हु का नाम मिट जाएगा मैं उन से पूछता हूँ कि हज़रत इमाम पाक रदिअल्लाहु अन्हु से पहले और बाद में जो हज़ारों लाखों हज़रात अंबिया व औलिया व शुहदा हुए हैं उन में से किस-किस के नाम पर ताजिए दारी या मेले तमाशे होते हैं क्या उन सब के नाम मिट गये? हक यह है कि ताजिए दारी ख़त्म होने से इमाम हुसैन रदिअल्लाहु अन्हु का नाम नहीं मिटेगा बल्कि ताजिए दारों का नाम मिट जाएगा और आजकल ताजिए दारी अपने नाम के लिए ही हो रही है इमाम हुसैन के नाम के लिए नहीं। देखा नहीं यह ताजिए दार अपनी नामवरी कि मेरा ताज़िया सब से ऊंचा अच्छा रहे और आगे चले उसके लिए कैसे-कैसे झगड़े करते हैं। हाँ इतना जानना ज़रूरी है कि वहाबी तो ताजिए दारी को शिर्क व कुफ्र और ताजिए दारों को मुश्रिक कुफ्फार तक कह देते हैं लेकिन सुन्नी उलमा ताजिए दारों को मुसलमान और अपना भाई ही समझते हैं बस इतनी बात है कि वह हराम काम करके गुनाहगार हो रहे हैं खुदाए तआला उन्हें उस से बचने और तौबा करने की तौफीक अता फरमाए। आमीन !
(मुह़र्रम में क्या जाएज़ क्या ना जाएज़ हिन्दी,सफ़ा 14,15,16,17,18,19)
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