सवाल :
अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहु
ज़िक्रे शहादते अहले बैत के बारे में बयान फरमा दें
जवाब :
व अलैकुम अस्सलाम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहु
हजरत सैय्यदुना इमाम हुसैन रजि अल्लाहु तआला अन्हु और दूसरे हज़राते अहले बैत किराम का ज़िक्र नज़्म में या नस्र(तकरीर) में करना और सुनना यकीनन जाइज़ है और बाइसे खैर व बरकत व नुजूले रहमत है लेकिन इस सिलसिले में नीचे लिखी हुई चन्द बातों को ध्यान में रखना जरूरी है।
1. जिक्रे शहादतैन में सही रिवायात और सच्चे वाकेआत बयान किए जाएं आजकल कुछ पेशावर मुकर्रिरों और शाइरों ने अवाम को खुश करने और तक़रीरों को जमाने के लिए अजीब अजीब किस्से और अनोखी निराली हिकायात और गढ़ी हुई कहानियाँ और करामात बयान करना शुरू कर दिया है क्योंकि अवाम को ऐसी बातें सुनने में मज़ा आता है और आजकल के अक्सर मुर्कीिरों को अल्लाह व रसूल से ज्यादा अवाम को खुश करने की फिक्र रहती है और बज़ाहिर सच से झूठ में मजा ज्यादा है और जल्से ज़्यादा तर मज़े दारियों के लिए ही होते हैं। 2.आला हजरत मौलाना शाह अहमद रज़ा खाँ रहमतुल्लाहि तआला अलैहि फरमाते हैं।शहादत नामे नज़्म या नस्र जो आज कल अवाम में राइज हैं अक्सर रिवायाते बातिला व बेसरोपा से ममलू(भरे हुए) और अकाज़ीबे मौजूआ पर मुश्तमिल हैं ऐसे बयान का पढ़ना और सुनना वह शहादत नामा हो ख़्वाह कुछ और मज्लिसे मीलाद व मुबारक में हो ख़्वाह कहीं और मुतलकन हराम व नाजाइज़ है। (फतावा रज़्वीया जिल्द 24 सफः 514 मत्बूआ रज़ा फाउन्डेशन लाहौर) और इसी किताब के सफः 522 पर इतना और है : यूंही मर्सिए ऐसी चीज़ों का पढ़ना सुनना सब गुनाह व हराम है।
3. ज़िक्रे शहादत का मक्सद उन वाकेआत को सुन कर इबरत व नसीहत हासिल करना है और साथ ही साथ सालेहीन के ज़िक्र की बरकत हासिल करना भी। रोने और रुलाने के लिए वाकेआते करबला बयान करना नाजाइज़ व गुनाह है। इस्लाम में 3 दिन से ज्यादा मैयत का सोग जाइज नहीं। आला हजरत इमाम अहमद रजा खाँ बरैलवी फरमाते हैं: शरीअत में औरत को शौहर की मौत पर चार महीने दस दिन सोग मनाने का हुक्म दिया है औरों की मौत के तीसरे दिन तक इजाजत दी है बाकी हराम है और हर साल सोग की तज्दीद तो असलन किसी के लिए हलाल नहीं। (फतावा रज्वीया जिल्द 24. सफः 465, मत्बूआ बरकाते रज़ा पोरबन्दर) और यह रोना और रुलाना सब राफज़ीयों के तौर तरीके हैं क्योंकि उनकी किस्मत में ही यह लिखा हुआ है। राफजी गम मनाते हैं और खारजी खुशी मनाते हैं और सुन्नी वाकेआते करबला को सुन कर नसीहत व इबरत हासिल करते हैं और दीन की खातिर कुरबानियाँ देने का सबक लेते हैं और उनकी जिक्र की बरकत और फैज़ पाते हैं। हाँ अगर उनकी मुसीबतों को याद करके गम हो जाए या आंसू निकल आए तो यह मुहब्बत की पहचान है। मतलब यह है कि एक होता है गम मनाना और गम करना और एक होता है गम हो जाना। गम मनाना और करना नाजाइज़ है और अज़ खुद हो जाए तो जाइज़ है।
हम ने देखा है कि कौम व वतन के लिए जब लोग मारे जाते हैं तो उनके घर व मुल्क वाले उन पर फख्र करते हैं तो अहले बैत की मुसीबतों को याद करके गम होना अगर चे ईमान की पहचान है लेकिन साथ ही साथ उम्मते मुसल्लेमा को फख्र है कि उनके नबी के नवासे ने राहे खुदा में इस्लाम की हिफाज़त के लिए अपना गला कटा दिया है।